शायद तुम नहीं समझती
मेरे दिल के लफ़्ज़ों से बुने इन चादरों को
वो लिपट जाना चाहती है
तुम्हारे दिल के हसीं ख्यालों को
जो शायद मेरे बारे में हों
या शायद हमारे बारे में ही कभी
पर हम दोनों कहें भी, और क्या
क्योंकि वक़्त भी नहीं मिटा पा रहा है
हमारे दर्मिया के फासलों को |
कभी यूँही किसी दिन जब तुम से बातें होती हैं
खोकर तुम्हारे ख्यालों में जहां घूम आता हूँ मैं
तुम्हारे ख्यालों से कह चूका हूँ मैं अक्सर
आधी रात नहीं होता है वक़्त ऐसे पागलपन का
तुम और तुम्हारे ख्याल कौनसा मेरा कहा मानते है
शायद इसी मुश्किलाहट पर ही तो प्यार करता हूँ
जो मेरे सोच पर हावी होकर मुझे तुम्हारी और खींचती है
वरना मेरे दिल का होश खोना ना मुमकिन सा है
अब इन फसलों की आदत सी डाल चूका हूँ मैं
तुम्हे ही सोचकर ज़रासा रोज़ जी लेता हूँ मैं |
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