कुछ शब्द प्रेम से लदे
पर तुम उसको पढ़कर हस देना
वो हँसने की धुन ही सही
लेकर के चल दूंगा ।
मेरा क्या है, क्यों है मीरा?
कान्हा कौन है, क्या है मेरा?
जो उस एकलौती छिड़ी तार न पा सकी
मैं तो हूँ प्रेम गीत से बेहरा
मैं न पाना चाहूं, जो खोना।
क्या तुम जान पाए
क्या तुम समझ पाए
लेकिन 'हम' सोच समझ पाए इस मृगतृष्णा में
अपने आपको तुम बना गया
तुम मैं बन गए।
बरबरीक तो हम बन गए
इस प्रेम के कुरुक्षेत्र के
मिला क्या , न तुम्हे, न मुझे
मिल पाएं क्या, हम तो बुझ गए
प्रीत ही अंत है, शुरुआत भी ।
सो कहे मीरा
न करो प्रेम, जो न संभाल पाएं
न बन मैं, मैं तो रह गयी दरस की आस में
तू न बन मीरा
पा ले आप को, प्रीत यही है।
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